बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती का भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर को बीजेपी का एजेंट बताना और फिर चंद्रशेखर का मायावती पर पलटवार करना एक नई राजनीतिक बहस का मुद्दा बन गया है.
राजनीतिक जगत में इसे दो तरीक़े से देखा जा रहा है- दलितों के बीच चंद्रशेखर के बढ़ते प्रभाव से मायावती का परेशान होना और चंद्रशेखर का समय से पहले बड़ी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाल लेना.
भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर दो साल पहले उस वक़्त चर्चा में आए थे जब सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में जातीय हिंसा हुई थी. उस समय उनका संगठन भीम आर्मी और उसका स्लोगन ‘द ग्रेट चमार’ भी ख़बरों में छाया रहा.
हिंसा के आरोप में चंद्रशेखर समेत भीम आर्मी के कई सदस्यों को गिरफ़्तार किया गया था और उस वक़्त ये मामला भी काफ़ी सुर्ख़ियों में रहा कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने दलितों के साथ हुई हिंसा पर संवेदना जताने में काफ़ी देर की. बहुजन समाज पार्टी ने इसके ख़िलाफ़ कोई आंदोलन भी नहीं किया.
मायावती शब्बीरपुर गईं ज़रूर लेकिन हिंसा के कई दिन बाद. उस समय भी उन्होंने दलित समुदाय को भीम आर्मी जैसे संगठनों से सावधान रहने की हिदायत दी थी. मायावती ने उस वक़्त भी भीम आर्मी और चंद्रशेखर को बीजेपी का ‘प्रॉडक्ट’ बताया था.
उसके बाद चंद्रशेखर जब कभी भी सुर्खियों में रहे, मायावती ने या तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और दी भी तो चंद्रशेखर को अपना प्रतिद्वंद्वी समझकर. हालांकि जेल से छूटकर आने के बाद चंद्रशेखर ने सीधे तौर पर कहा था कि वो बहुजन समाज पार्टी और उसकी नेता मायावती के समर्थन में हैं और उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं.
भीम आर्मी ख़ुद को एक सामाजिक संगठन के तौर पर पेश करता है और उसके प्रमुख चंद्रशेखर कई बार ख़ुद कह चुके हैं कि उनका राजनीति में आने का अभी कोई मक़सद नहीं है.
लेकिन वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने की उनकी घोषणा से ये तो साफ़ हो गया कि भीम आर्मी एक राजनीतिक दल में अभी भले न तब्दील हो लेकिन चंद्रशेखर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से इनकार नहीं किया जा सकता.
जानकारों के मुताबिक़, चंद्रशेखर के राजनीति में आने से सबसे ज़्यादा ख़तरा बहुजन समाज पार्टी को दिखता रहा है क्योंकि जिस दलित समुदाय को बीएसपी अपना मज़बूत वोट बैंक मानती है, चंद्रशेखर और उनकी भीम आर्मी भी उसी समुदाय के हित में काम करते हैं.
चंद्रशेखर की वाराणसी से चुनाव लड़ने की घोषणा ने बीएसपी नेता मायावती को हैरान कर दिया और उन्होंने तत्काल बयान जारी करके चंद्रशेखर पर बीजेपी का एजेंट होने का आरोप मढ़ दिया.
हालांकि चंद्रशेखर ने भी ट्वीट के ज़रिए मायावती के बयान को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया है लेकिन जानकारों का मानना है कि मायावती ने इस मामले में जल्दबाज़ी कर दी है.
वरिष्ठ पत्रकार रियाज़ हाशमी कहते हैं, “मायावती ने बहुत ही जल्दबाज़ी में और बहुत बड़ा आरोप चंद्रशेखर पर लगा दिया है. सहारनपुर और उसके आस-पास के इलाक़ों में दलित समाज में उसका संगठन जिस तरह से काम कर रहा है और समाज के बीच उसका जितना असर है, उसे देखते हुए उसके प्रभाव को नकारना भूल होगी.”
हालांकि रियाज़ हाशमी ये भी कहते हैं कि चंद्रशेखर और उनकी भीम आर्मी का प्रभाव राजनीति और चुनावी परिणामों में कितना दिखता है, इसका आज तक परीक्षण तो नहीं हुआ, लेकिन प्रभाव पड़ना ज़रूर चाहिए.
उनके मुताबिक, “पश्चिमी उत्तर प्रदेश का दलित समुदाय अच्छी तरह जानता है कि बहुजन समाज पार्टी एक राजनीतिक पार्टी है और उसकी सोच में राजनीतिक लाभ सबसे पहले रहेगा. दलितों के लिए ज़मीन पर संघर्ष भीम आर्मी पिछले दो-तीन साल से जिस तरह कर रही है, उससे उनके बीच उसकी पैठ काफ़ी गहरे तक बढ़ी है. इस स्तर तक कि यदि मायावती भी उसके बारे में कुछ ग़लत कहें तो शायद लोग यक़ीन न करें.”
दरअसल, मायावती और चंद्रशेखर दोनों का प्रभाव क्षेत्र सहारनपुर समेत पश्चिमी उत्तर प्रदेश रहा है. भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर कई बार बीएसपी और मायावती के समर्थन की बात करके बहुजन एकता का संदेश देने की कोशिश करते हैं लेकिन मायावती उनकी इस हमदर्दी को भी आशंका भरी निग़ाह से ही देखती रही हैं. रविवार को उन्होंने ये भी आरोप लगाया कि बीजेपी चंद्रशेखर को एक ख़ास रणनीति के तहत उनकी पार्टी में भेजना चाहती थी.
बताया जा रहा है कि इसके पीछे मायावती का वह डर है जिसमें उन्हें अपने दलित मतदाताओं का बीएसपी से दूर होने का अंदेशा है. मायावती ने उस वक़्त भी काफ़ी तीख़ी प्रतिक्रिया दी थी जब कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी अस्पताल में चंद्रशेखर को देखने गईं थीं और दिल्ली की रैली में चंद्रशेखर के मंच पर कांशीराम के परिजन मौजूद थे.
लेकिन दलित चिंतक और मेरठ विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक सतीश प्रकाश दलितों में चंद्रशेखर के बढ़ते प्रभाव को तो स्वीकार करते हैं लेकिन चंद्रशेखर की वजह से मायावती के लिए कोई राजनीतिक ख़तरा नहीं देखते.
उनका कहना है, “चंद्रशेखर कुछ जल्दबाज़ी कर रहा है. उसे पहले दलित समुदाय में अपने को साबित करना चाहिए और तब उन्हें लीड करने की कोशिश करनी चाहिए. अभी उसने जो कुछ भी किया है, वो इतना पर्याप्त नहीं है कि दलित समुदाय उसकी आड़ में बाबा साहब और कांशीराम की परंपरा से जुड़ी बहुजन समाज पार्टी की अनदेखी कर दे.”
सतीश प्रकाश के मुताबिक़, “चंद्रशेखर ने मायावती के ख़िलाफ़ भले ही कुछ नहीं कहा या उनके समर्थन की बात कहता रहा है लेकिन जेल से छूटने के बाद आप उसकी गतिविधियों पर नज़र डालिए तो पता चलता है कि उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा किस तरह बढ़ रही है.”
“मायावती को बुआ कहना, रैली निकालना, मौलाना मदनी के पास जाना, प्रियंका गांधी का उसे देखने आना ये सब क्या है? दरअसल, चंद्रशेखर वो ग़लती कर रहा है जो बाक़ी दलित नेताओं ने की यानी एक-दूसरे की आलोचना की और आख़िर में कहां खो गए, कोई नहीं जानता.”
सतीश प्रकाश की मानें तो ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजनीतिक तौर पर मायावती को चुनौती देना अभी आसान नहीं है. इसकी वजह ये है कि दलित समाज ये मानता है कि दलित हितों के लिए कांशीराम की बनाई हुई परंपरा का निर्वाह मायावती ही कर रही हैं. और जो भी इसका उल्लंघन करने की कोशिश करेगा, दलित समाज उसे ख़ारिज कर देगा.
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार अमिता वर्मा कहती हैं, “चंद्रशेखर ने जिस चालाकी से अपने राजनीतिक क़दम बढ़ाए हैं, मायावती के लिए उसके मक़सद को पहचानना मुश्किल नहीं है. इसीलिए वो दलित समुदाय को आग़ाह करती रहती हैं. रही बात इसकी कि वो दलित वोटों को कितना प्रभावित कर सकता है तो अब स्थितियां बदल चुकी हैं.”
“दलितों में भी युवा मतदाता बड़ी संख्या में हैं, सोशल मीडिया में सक्रिय हैं, वो चंद्रशेखर और मायावती की तुलना भी करते हैं. इसलिए वो आंख-मूंद कर किसी पर यक़ीन कर लेंगे, ये मुश्किल है. ऐसी स्थिति में ये कहना कि चंद्रशेखर के पास दलित मतों के बिखराव की ताक़त नहीं है, सही नहीं लगता.”
बहरहाल, चंद्रशेखर ने वाराणसी से न सिर्फ़ चुनाव लड़ने की घोषणा की है बल्कि विपक्षी दलों से समर्थन भी मांगा है.ऐसे में ये सवाल भी काफ़ी अहम है कि यदि बीएसपी और दूसरे विपक्षी दल वाराणसी में बीजेपी उम्मीदवार प्रधानमंत्री मोदी की हार चाहते हैं तो क्या वो चंद्रशेखर को समर्थन देंगे.
समीरात्मज मिश्र,
(बीबीसी से साभार)